Wednesday, January 27, 2016

आइडिया ऑफ इंडिया - के एन गोविंदाचार्य

स्वाॅट एनालिसिस से ही तय होगी देश की दिशा

- केएन गोविंदाचार्य, राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक
K N Govindacharya

आइडिया आॅफ इंडिया यानी भारत की संकल्पना की उत्कृष्ट अवधारणा को लेकर हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने बहुत सारे विचार दिये हैं, जिन पर समय-समय पर चर्चाएं होती रही हैं। इसी के मद्देनजर इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर मैंने बात की राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक केएन गोविंदाचार्य जी से कि उनकी नजर में आइडिया ऑफ इंडिया का अर्थ क्या है। 

आजादी के इतने साल बाद प्रमुख राष्ट्र निर्माताओं के आइडिया ऑफ इंडिया की प्रासंगिकता को आप कैसे देखते हैं? 
आजादी के पहले जो लोग अलग-अलग धाराओं में आजादी के लिए काम कर रहे थे, आजादी के बाद के भारत या भारतीय समाज के बारे में उनकी धारणाएं और अभिमत थोड़े अलग-अलग थे। जैसे आजादी के आंदोलन की चार मुख्य धाराएं थीं- एक है महात्मा गांधी, दूसरे हैं भगत सिंह, तीसरे हैं वीर सावरकर और चौथे हैं नेताजी सुभाषचंद्र बोस। इन चार धाराओं के अंतर्गत आंदोलन में कुछ लोग साथ भी हो रहे थे, जैसे जवाहरलाल नेहरू जी महात्मा गांधी के साथ थे। अंगरेजों के भारत से वापस जाने के बारे में तो गांधी-नेहरू में सहमति थी, लेकिन अंगरेजों के जाने के बाद के भारत की तस्वीर के बारे में दोनों में बहुत गहरे मतभेद थे। उसी तरह से आजादी के बाद के भारत को लेकर डॉ भीमराव आंबेडकर जी और महामना मालवीय जी, इन दोनों की सोच में भी फर्क था। इसलिए जब हम आज आइडिया ऑफ इंडिया की बात करते हैं, तो मैं मानता हूं कि मूल द्वंद्व यह है कि हम भारत के हजारों साल के इतिहास को अपने चिंतन में समाहित करके चलना चाहते हैं या हम यह मानते हैं कि भारत एक नया राष्ट्र या बनता हुआ राष्ट्र या बहुत से राष्ट्रों का मिला कर राज्य (स्टेट) होगा, इससे हम क्या समझते हैं, इसी विचार से भारत का नक्शा तय होना है। और इन्हीं चार धाराओं में अलग-अलग प्रयास चल रहे हैं और कई बार सामाजिक एकता और एकात्मकता के रास्ते में परस्पर विरोधी स्वर भी दिखते हैं। इसी कारण जो भारतीय मानस में सर्वपंथ समादर का पहलू है, वह सेक्यूलरिज्म के संदर्भ और अर्थों से भिन्न है। सेक्यूलरिज्म शब्द एक विशिष्ट कालखंड में यूरोपीय इतिहास में जन्मा हुआ शब्द है। भारत के संविधान में गहरे आपातकाल के दौरान इस शब्द को लादा गया और थोपा गया। उस समय लोकतंत्र की स्थितियां ही नहीं थीं, जब संविधान में इस शब्द का समायोजन हुआ। इसलिए भारतीय संदर्भ में पंथनिरपेक्षता राज्य रखे और समाज में सभी मतों का समादर हो, ऐसा होना चाहिए। बाद में चल के इसी की अलग-अलग धाराएं बन गयीं, जिस पर विचार होना चाहिए। 

देश के प्रमुख राष्ट्र-निर्माताओं ने अपने सपनों के भारत के बारे में जो बातें कही थी, बाद के सालों में भारत की दशा-दिशा उस पर कितनी खरी उतरती है? 
स्वाराज्य की लड़ाई में अंगरेजों के जाने के बाद राज चलानेवाले लोग अपना रास्ता भटक गये। गांधी जी ने कारीगरी, किसान और गाय काे भारतीय समाज का संश्लेषित स्वरूप देखा था। ढाई सौ वर्षों से पहले कारीगरी को किसानी से काट कर अलग किया गया और किसानी को गाय से अलग कर दिया गया। इसी अलगाव के चलते कारीगरी, किसान और गाय तीनों अलग-अलग नुकसान में रहे। गांधी जी तीनों को जोड़ कर ही चल रहे थे। आजादी के बाद के नेता भारत को पहले रूस बनाने में लग गये और फिर बाद में कुछ लोग भारत को चीन बनाने में भी लग गये। उसके बाद भी नहीं रुके और कुछ लोग भारत को अमेरिका बनाने में जुट गये। अब हाल-फिलहाल में राजीव गांधी की नकल की कोशिश हो रही है। यह देश के आम आदमी और अंतिम आदमी के हितों पर कुठाराघात था। रूस की चमक-दमक के शिकार सत्ताधीशों ने बेतहाशा औद्योकिरण और सरकारीकरण को बढ़ावा दिया। फलत: सत्ता द्वारा पोषित उद्योगपति देश में खड़े हुए और व्यवस्था में नौकरशाही हावी हो गयी। लाइसेंस परमिट कोटा राज हो गया। उससे एकदम से राह बदले, तो वे अमेरिका की तरफ मुड़ गये। तब यह राजीव गांधी का दौर था। तब से अब तक वही बात चल रही है। हाल-फिलहाल में लगा कि भारत का आदर्श ब्राजील हो सकता है, यह बिना जाने-समझे कि ब्राजील की जनसंख्या-भोग्य अनुपात भारत से बिल्कुल भिन्न है। 

आज के राजनेता आइडिया ऑफ इंडिया से कितने अलग हैं? 
भारत की आत्मा गांव में बसती है, यह तो कहा गया, लेकिन शहरीकरण अब तक देश के नब्बे हजार गांवों को लील चुका है। अब स्मार्टसिटी की घोषणा भी हो चुकी है। एक स्मार्टसिटी तकरीबन सात सौ गांवों को खत्म करेगी और देश में सौ स्मार्टसिटी की कल्पना की गयी है। ऐसे में सोचिए कि इस शहरीकरण के चलते कितने गांव खत्म हो जायेंगे। 

क्या मौजूदा विकास नीति या आधुनिकीकरण आइडिया ऑफ इंडिया पर खरे उतरते हैं?
गांधी जी अनारक्षित डिब्बे के यात्रियों का दुख-दर्द जानते थे। आज हमारे सत्ताधीशों ने प्राथमिकता बदल दी है और उनका लक्ष्य अब बुलैट ट्रेन हो गया है। जबकि, बुलैट ट्रेन के किराये के बराबर ही वायुयान का किराया पड़ेगा। बुलैट ट्रेन चलाने की प्रक्रिया में जमीन-जल-जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर इस नये विकास की कोशिश हो रही है, जो हमारे देश के लिए निहायत ही आत्मघाती कदम है। इसमें विगत साठ वर्षों में बढ़ी बेरोजगारी, प्रकृति विध्वंस, गैर-बराबरी, महंगाई आदि इस बात का सबूत है कि आजादी के आंदोलन के लक्ष्य और मूल्यों से देश के सत्ताधीश भटकते गये और उनका राष्ट्रीय सरोकार कटता गया है। 

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी। वर्तमान में इनकी स्थिति कैसी है?
भारत को अगर हम हजारों साल की परंपरा का देश तो मानेंगे, लेकिन केवल पिछले हजार साल के दौरान जो परंपराएं विकसित हुईं, उनको नहीं मानेंगे, तो फिर भारत की तस्वीर ही बदल जायेगी। दुर्भाग्य से देशभक्ति के तत्व को सांप्रदायिकता कहा जा रहा है और अल्पसंख्यकवाद को सेक्यूलरिज्म कहा जा रहा है। मेरे ख्याल में यह समझ की विडंबना है और पूरी तरह से विरोधाभासी समझ है। 

संविधान के मुताबिक, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलेगा। क्या हमारा देश अपने नागरिकों से किये इस वादे को कितना पूरा कर सका है?
जहां तक न्याय-व्यवस्था का सवाल है, तो इसका अर्थ यह है कि इस व्यवस्था में जनता को पहले भरोसा मिले। देशभर में जिस तरह से तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं, उससे कोई भरोसा मिलता तो नहीं दिख रहा है। हमारे देश में जनसंख्या और जजों का अनुपात बहुत खराब है। मौजूदा भारत की दस लाख आबादी पर साढ़े बारह जज हैं, जबकि अमेरिका में दस लाख आबादी पर 113 जज हैं। न्यायपालिका ने कहा था कि केंद्रीय सरकार अगर सात हजार करोड़ रुपये दे, तो हम दस लाख जनसंख्या पर 50 जजों को बहाल कर पायेंगे। तब जाकर ये तीन करोड़ लंबित मुकदमे चार साल में निपट पायेंगे। लेकिन केंद्रीय सरकार ने न्यायपालिका को यह पैसा नहीं दिया। आइडिया आॅफ इंडिया के मद्देनजर, इससे स्पष्ट होता है कि सरकारों की प्राथमिकता क्या रही है। 

आखिरी सवाल, आइडिया ऑफ इंडिया आपकी नजर में?
आइडिया आॅफ इंडिया इस बात से तय होगा कि हम इंडिया यानी भारत से क्या समझते हैं। भारत का स्वॉट एनालिसिस (SWOT- strengths, weaknesses, opportunities and threats यानी शक्तियां, कमजोरियां, अवसर अौर खतरों) का विश्लेषण बहुत दोषपूर्ण है। अगर हम इन चारों का अच्छी तरह से विश्लेषण कर लेते, या आज भी कर लें, तो हमारे देश की दशा-दिशा सही से तय हो सकती है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो आगे देश में विषमता, अराजकता के लिए निमंत्रण रहेगा ही और इससे देश का राजनीतिक ढांचे पर बेतहाशा तनाव बढ़ेगा। 

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