Thursday, June 14, 2012

सूफी गायिका बेग़म आबिदा परवीन से बातचीत का एक टुकड़ा


खिराज-ए-अकीदत - शहंशाह-ए-गजल मेहदी हसन 
18 जुलाई, 1927- 13 जून, 2012
कायनात ने खो दिया सुरों का नूर-ए-मुजस्सम
Mehdi Hasan & Abida Parveen
बेहद अफसोस है कि जनाब मेहदी हसन साहब इस दुनिया से रुखसत हो गये. आज सारा आलम सोगवार सा बैठा उनके जनाजे को ऐसे देख रहा है जैसे वे अभी अपनी गहरी नींद से बेदार होंगे और फरमायेंगे, जरा मेरा हारमोनियम लाना, एक सुर खटक रहा है... मगर काश ऐसा होता. इसी एहसास को शिद्दत से महसूस करते हुए और चश्म-ए-नम से सराबोर हुईं मशहूर-ओ-मआरूफ सूफी गायिका आबिदा परवीन से जब मैंने बात की तो लग्जिशी जुबान में उन्होंने अपने दर्द को कुछ यूं बयान किया...
        शहंशाह-ए-गजल जनाब मेहदी हसन का इस दुनिया से जाना महज एक इंसानी हयात का जाना नहीं है, बल्कि पूरी कायनात से एक ऐसी रूह का जाना है जो मौसिकी के लिए एक नूर-ए-मुजस्सम थे. अल्लाह उनकी रूह को जन्नत में आला से आला मुकाम अता फरमाए. आज पूरी कायनात ने जो खोया है, मैं समझती हूं कि शायद इससे पहले फन की किसी दुनिया ने कोई भी ऐसी नायाब चीज नहीं खोयी होगी. वे इस दुनिया के तमाम गुलोकारों से बहुत अलग थे. गजल व नज्म को गाने के लिए जिस मिजाज की जरूरत होती है, वे उसी मिजाज को शिद्दत से जीते थे. उनकी आवाज को सुनकर ही हमें ये एहसास होने लगता है कि वह गजल यह नज्म अब सिर्फ गजल एक नज्म नहीं रह गयी, बल्कि उसने अपनी रूहानियत को जी लिया. गजलें और नज्में उनकी जुबान पर उतरने के लिए अपने वजूद को पाने के लिए बेकरार रहा करती थीं. 
कम से कम मेरे लिए तो यह कहना बहुत ही मुश्किल है कि उनके बाद गजल की इस रूहानी विरासत को कोई संभाल पायेगा नहीं, महज जिंदा रखने की रवायत तो दूर की बात है. गजल और मौसिकी को लेकर उनके अंदर जो सलाहियत  थी, जो कैफियत थी, वह दुनियावी  नहीं थी, बल्कि हकीकी थी. गजल के हर एक शे‘र और शे‘र के हर एक लफ्ज को वो अपनी जुबान नहीं, बल्कि अपनी रूह दे देते थे, जिसे सुनने के बाद शायारी और शायर की कैफियत का अंदाजा लगाना आसान हो जाता है. मेहदी साहब की यही वह सबसे मखसूस सलाहियत थी, जिसे महसूस कर मशहूर शायर फैज अहमद फैज ने अपनी गजल-गुलों में रंग भरे बादे नौबहार चले... को उनके नाम करते हुए कहा था, 'इसके मुगन्नी (गायक) भी आप, मौसिकार (संगीतकार) भी आप और इसके शायर भी आप ही हैं.‘
          मुझे उनकी हर मुलाकात का एक-एक रूहानी मंजर बाकायदा ऐसे याद है जैसे कि एक बच्चा अपना सबक याद रखता है. वे जब भी मिलते थे, सिवाय मौसिकी यानि संगीत के किसी और मसले पर बात ही नहीं करते थे. मुख्तलिफ शायरों की सादा-मिजाज गजलों को भी वे अपनी जुबान देकर उसे बाकमाल नग्मगी में तब्दील कर देते थे. ऐसा इसलिए, क्योंकि वे गजलों को गाने से पहले खूब रियाज़ करते थे. दिन-दिन भर हारमोनियम लिए बैठे रहते थे और एक ही गजल को मुख्तलिफ रागों पर कसा करते थे. गजलों के जरिये रूह में उतरने की वो कूवत सिर्फ मेहदी साहब में ही थी. परवीन शाकिर की गजल- कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की... को गाते हुए वे खुद भी इतने शनास हो जाते थे कि प्रोग्राम पूरी तरह से खुश्बूजदा हो जाता था. रंजिश ही सही... तो उनका माइलस्टोन ही है. मीर की गजल- ये धुआं कहां से उठता है को गाते हुए वे पूरे माहौल को शादमानी के ऐसे आलम में लेकर चले जाते थे, जिसे अब कहीं पर तलाश करना बहुत ही मुश्किल है. गजल सुनने-सुनाने का अब वैसा मंजर शायद ही मिले. जिंदगी के आखिरी वक्त तक अपने सीने में बंटवारे का दर्द समेटे रहे और उफ तक न किया. ऐसा खुदा की सल्तनत का एक नायाब इंसान ही कर सकता है. उनको दिल से जज्बाती खिराज-ए-अकीदत. अल्लाह उनकी रूह को जन्नत बख्शे... आमीन...!

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